नख से शिख तक भभूत। शिव और शक्ति का प्रतीक। क्षणभंगुर जीवन की सत्यता का आभास कराती है। इसे मस्तक से कंठ, कंठ से नाभि और नाभि से अंगुष्ठ तक लगाया जाता है। धुनी लगाने का मतलब होता है हमारी दिशा ही अंबर है और हम दिगंबर हैं। पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण जिसका दिग अर्थात वस्त्र ही अंबर हो ऐसा दिगंबर। भभूत को लोक लज्जा के निवारण के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। ये बताती है कि सब कुछ एक दिन राख हो जाएगा।
नागा अपने शरीर पर केवल उन चीजों का इस्तेमाल करते हैं जो उनके इष्टदेव महादेव से जुड़ी होती हैं। इसी का एक हिस्सा है उनके शरीर पर लगने वाली भभूत। वैसे तो चिता की राख को मुक्ति की राख माना जाता है लेकिन जब ये उपलब्ध नहीं होती है तो इसे नागाओं द्वारा एक विशेष विधि से तैयार किया जाता है।
नागाओं से संबंधित 13 अखाड़े हैं। इन्हें आध्यात्मिक, धार्मिक और सामाजिक तीनों रूपों में बांटा गया है। ऐसा माना जाता है कि आदिदैविक शक्ति नागाओं के पास होती है। दैविक और आध्यात्मिक शक्ति उनके आचार्य के पास होती है। आदिशंकराचार्य ने जब सनातन धर्म के लिए संन्यास की यात्रा आरंभ की तो राजा-महाराजा उनको सम्मान नहीं देते थे। इसके बाद उन्होंने छत्र और सिंहासन का इस्तेमाल शुरू किया और कुंभ में अब अखाड़े में महामंडलेश्वर और गुरू अमृत स्नान के लिए जाते समय इसका प्रयोग करते हैं।
सही मायनों में नागाओं की हर चीज अमंगल है, लेकिन जब आप इनका नाम लेते हैं तो सब मंगल हो जाता है। ये उतकट बैराग में जीते हैं। इनका मानना होता है कि ये भगवान शिव के अंश हैं। जब ये सांस लेते हैं तो ये मानकर चलते हैं कि ये सांसें भी भगवान शिव ले रहे हैं। शिव के शृंगार में चिता की भभूत एक अहम हिस्सा है और इसी लिए नागा भी इसका प्रयोग करते हैं। माना जाता है कि लकड़ी और मनुष्य जब एक साथ जलते हैं तो उन्हें 84 लाख योनियों से मुक्ति मिल जाती है। ये 84 लाख योनियां, मुनष्य वर्ग, पक्षी वर्ग, पशु वर्ग में बंटी होती हैं।
वैसे तो नागा चिता की राख का प्रयोग करते हैं। चिता की राख भी पवित्र स्थान की ही होनी चाहिए, ऐसा नहीं कि किसी भी श्मशान की राख का प्रयोग करें। काशी, अयोध्या, मथुरा, उज्जैन इन स्थानों में शामिल हैं। लेकिन जब इनके पास चिता की पवित्र राख नहीं होती तो फिर एक ये एक हवन कुंड बनाते हैं और उसमें उसमें ये खड़ी लकड़ी रखते हैं। इन लकड़ियों को यह हिंगलाज देवी का रूप मानते हैं। हवन की प्रक्रिया चलती रहती है और इस दौरान ईशान कोण में त्रिशूल गाड़ दिया जाता है। धुनी को शिव और शक्ति दोनों का प्रतीक माना जाता है। शिव शक्ति का प्रसाद मानकर इसका लेप शरीर पर लगाया जाता है। इसको लगाने की प्रक्रिया मस्तक से कंठ की ओर चलती है क्योंकि ये मानते हैं कि ब्रह्मरंध्र से ही व्यक्ति के प्राण निकलते हैं।